जायज एडजस्टमेंट रिश्तों को मजबूत बनाता है,
खुद को बदलना रिश्तों को कब्र तक ले जाता है...
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एडजस्टमेंट का मतलब हमारी सोच समझ आदतें सब वही हैं, बस हमने अपनी नापसंद वाली चीजें भी सामने वाले के लिए मैनेज कर ली हैं... जबकि खुद को बदलने का मतलब अब वो चीजें हमें नापसंद नहीं रहीं... इस तरह के बदलाव कभी स्थायी नहीं होते क्योंकि एक समय आता है जब लोग बदलावों से छटपटाकर बाहर निकल आना चाहते हैं... और एक झटके में सब बूम...!!
एडजस्ट अधिकतर एक ज्यादा करता है और दूसरा कम... जितना ज्यादा ये गैप होता है उतना ही रिश्तों में दुःख होता है... दोनों के बराबर मात्रा में किये एडजस्टमेंट तकलीफ नहीं देते क्योंकि हम जानते हैं कि अगर हमने कुछ चला लिया है तो सामने वाला भी उसी कंडीशन में है...
एडजस्टमेंट सबसे ज्यादा खून के रिश्तों में दिखाई देते हैं... जैसे कि माँ-बाप को पता होता है बेटे/बेटी में ये या वो कमी है लेकिन वो उन कमियों के साथ भी बच्चे के लिए उतनी ही ममता रखते हैं... काफी बड़े होने तक भाई-बहनों में भी सेम फीलिंग्स बनी रहती है... और तो और अच्छे दोस्त भी एक दूसरे को उनकी कमियों के साथ ही एक्सेप्ट करते हैं...
इसीलिए शायद प्रेम संबंध और शादी सम्बन्ध सबसे ज्यादा ब्रेकेबल नज़र आते हैं क्योंकि सामने वाले को बदलने की सबसे ज्यादा कोशिशें भी इसी रिश्ते में की जाती हैं... जो लोग बदलता नहीं चाहते , ओवर एक्सपेक्टेशंस के चलते उनके रिश्ते जल्दी ही ख़त्म हो लेते हैं... और जो लोग बदल कर दिखा देते हैं वे असल में बदले नहीं होते, बल्कि बदलने की कोशिश में आर्टिफिशियल नेचर ओढ़ लेते हैं... यूँ जब तक चल सकता है चलाया जाता है और बाद के सालों में अचानक होने वाले विस्फोटों में नकली लबादों संग रिश्ते भी ब्लास्ट हो जाते हैं....
पीछे रह जाते हैं टीस देते, मवाद बहते, सड़ते हुए रिश्ते...!!
● जोगेंद्र सिंह (jogi ~ jc) ● (11/01/2017)
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