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महबूब



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         महबूब    

आँखें बंद कर ली, दीदार हो गया।
यही करते हुए, जीवन भी बीत  गया

ना था होश में, जो ख्वाहिश मैं करूँ,  
तेरा जलाल देख, मदहोश हो गया।
   
तेरे सजदे को छोड़, कुछ नहीं किया,
बिन मांगे ही मुझको, सब कुछ मिल गया।

तेरी रहमत मुझ पर, कुछ ऐसी हुई,
ग़रीब था कभी, मालामाल हो गया।

आवारा सा था मैं भी, इस जहाँ में  
गले लगाया आपने, मैं सुधर गया।  

कितने रहमों-करम हैं तेरे, मुझ पर,
अपने कर्म देख, शर्मसार हो गया।    

तेरी सोहबत का हुआ है ये असर,
“राही” इस जहाँ में मशहूर हो गया।

©  राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही" 






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महबूब

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