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समरथ के नहीं दोष गोसाई - भाग -2


समरथ के नहीं दोष गोसाई 

भाग -2 (अंतिम भाग) 
भाग - 1 पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक को क्लिक करें :-
http://rakeshkirachanay.blogspot.in/2017/02/1_22.html

अभी तक आपने पढ़ा कि कैसे इन्द्र राजभोग से विरक्त हो मोक्ष प्राप्ति हेतु कैलाश पर्वत पर शिव की आराधना करने पहुँचे और एक दिन मानसरोवर के तट पर कुबेर की पत्नी चित्रसेना को देख मोहित हो गए और कामदेव की मदद से चित्रसेना को काम-वासना वशीभूत कर अपने साथ मन्दराचल के एक अज्ञात कन्दरा में लेकर आए। पूरा पढ़ने के लिए ऊपर दिए गए  लिंक को क्लिक करें।  

अब आगे -

इधर, इन्द्र जब चित्रसेना को लेकर मन्दराचल चले आए, तब उसकी संगनी स्त्रियाँ उसे साथ लिए बिना ही यक्षराज कुबेर के समीप घबराई हुई पहुँची और बोलीं-“यक्षपते ! आपकी भार्या चित्रसेना को किसी अज्ञात पुरुष ने पकड़ कर विमान पर बिठा लिया और चारों ओर सशंक-दृष्टि से देखता हुआ वह चोर बड़े वेग से कहीं चला गया है।

विष के समान दुस्सह प्रतीत होने वाली इस बात को सुनने से धनाधिप कुबेर का मुँह काला पड़ गया। उस समय उनके मुख से कोई बात नहीं निकली। इसी समय चित्रसेना की सहचरी श्रेष्ठ यक्ष-कन्याओं से यह समाचार जानकर कुबेर का मंत्री कंठकुब्ज भी अपने स्वामी का मोह दूर करने के विचार से आया। उसका आगमन सुन राजाराज कुबेर ने आँखें खोल कर उसकी ओर देखा और लंबी साँस खींचते हुए अपने चित्त को यथासंभव शीघ्र सँभालकर दीनभाव से बोले। उस समय उनका शरीर भय और क्रोध से काँप रहा था।
वे कहने लगे – “वही यौवन सफल है, जिससे युवती का मनोरंजन हो सके; दान वही सार्थक है, जो आत्मीय जनों के उपयोग में आ सके। जीवन वह सफल है, जिसे सद्धर्म किया जाए और प्रभुत्व वही सार्थक है, जिसमें युद्ध और कलह के मूल नष्ट हो गये हों। इस समय मेरे इस विपुल धन को, मेरे इस विशाल राज्य को और मेरे इस जीवन को धिक्कार है। अभी तक मेरे इस अपमान को कोई नहीं जानता, अतः इसी समय अग्नि में जल मरूँगा। पीछे यदि इस समाचार को लोग जान लें तो क्या ? मृत पुरुषों का क्या अपमान होगा? हा ! वह मानसरोवर के तट पर गिरजा-पूजन के लिए गई थी जो यहाँ निकट ही था और मैं जीवित भी था, तो भी किसी ने हर लिया। हम नहीं जानते वह कौन है, पर अवश्य ही उस दुष्ट को मृत्यु का भय नहीं होगा। ”

स्वामी की यह बात सुनकर उसका मोह दूर करने के लिए कुबेर के उस मन्त्री कंठकुब्ज ने यह वचन कहा- “नाथ! सुनिए, स्त्री के वियोग में शरीर-त्याग करना आपके लिए उचित नहीं है। पूर्वकाल में भगवान् श्री रामचंद्र जी की एक मात्र पत्नी सीता को भी निशाचर रावण ने हर लिया था, परन्तु श्री रामचंद्र जी ने प्राण नहीं त्यागा। आपके यहाँ तो अनेक स्त्रियाँ हैं, फिर आप मन में यह कैसा विषाद ला रहें हैं? यक्षराज ! शोक त्याग कर पराक्रम में मन लगाइये; धैर्य धारण कीजिये। साधू पुरुष बातें नहीं बनाते और न बैठकर रोते ही हैं; वे दूसरों के द्वारा परोक्ष में किए हुए अपने अपमान को उस समय चुपचाप सह लेते हैं। वित्तपते ! महापुरुष समय आने पर महान कार्य कर दिखाते हैं। आपके तो अनेक सहायक हैं, आप क्यों कातर हो रहें हैं? इस समय तो आपके छोटे भाई विभीषण स्वयं ही आपकी सहायता कर सकते हैं।
कुबेर बोले- विभीषण तो मेरे विपक्षी ही बने हुए हैं, वे अब भी मेरे साथ कौटुम्बिक विरोध का त्याग नहीं करते। यह निश्चित बात है की दुर्जन पुरुष उपकार करने पर भी प्रसन्न नहीं होते, वे इन्द्र के वज्र के सदृश कठोर होते होते हैं। सगोत्र का मन उपकारों से, गुणों से अथवा मैत्री से भी प्रायः प्रसन्न नहीं होते।

यह सुनकर कंठकुब्ज ने कहा - “धनाधिनाथ ! आपने ठीक कहा है. विरोध होने पर सगोत्र पुरुष अवश्य ही परस्पर घात-प्रतिघात करते हैं, तथापि लोक में उनका प्रभाव नहीं देखा जाता; क्योंकि कुटुम्बी जन दुसरे के द्वारा किए हुए अपने बन्धुजन के अपमान को नहीं सा सकते। जिस प्रकार सूर्य की किरणों से तप्त हुआ जल अपने भीतर के तृणों को नहीं जलाता; उसी प्रकार दूसरों से अपमानित कुटुम्बी जन अपने पार्श्ववर्ती बंधुओं को नहीं सताते। इसलिए धनाधिप ! आप बहुत शीघ्र विभीषण के पास चलिए। जो लोग अपने बाहुबल से उपार्जित धन का उपभोग करते हैं, उन्हें भाई-बन्धुओं के साथ क्या विरोध हो सकता है। ”

अपने मंत्री कंठकुब्ज के इस प्रकार कहने पर कुबेर मन-ही-मन उस पर विचार करते हुए शीघ्र ही विभीषण के पास गए। लंकापति विभीषण ने जब ज्येष्ठ भ्राता का आगमन सुना, तब उन्होंने बड़ी विनय के साथ उनकी अगवानी की। फिर विभीषण ने अपने भाई को जब दीन दशा में देखा, तब उन्होंने मन-हि-मन दुखी होकर उनसे यह महत्वपूर्ण बात कही।

विभीषण बोले-“ यक्षराज ! आप दीन क्यों हो रहे हैं? आपके मन में क्या कष्ट है? इस समय आप उस कष्ट को मुझे बताइये। मैं निश्चय ही उसका मार्जन करूँगा। "

तब कुबेर ने एकांत में जाकर विभीषण से अपनी मनोवेदना बतलाई .

कुबेर बोले- भाई! कुछ दिनों से मैं अपनी मनोरमा भार्या चित्रसेना को नहीं देख रहा हूँ। न जाने उसे किसी ने पकड़ लिया या स्वयं किसी के साथ चली गई अथवा किसी शत्रु ने उसे मार डाला।  बन्धो ! मुझे अपनी स्त्री के वियोग का महान कष्ट हो रहा है। यदि वह प्राणवल्लभा न मिली तो मैं प्राण त्याग दूँगा।

विभीषण बोले - “प्रभो! आपकी भार्या कहीं भी होगी, उसे मैं लाकर दूँगा। नाथ! इस समय संसार में किसकी सामर्थ्य है जो हमारा तृण भी चुरा सके।”

यह कहकर विभीषण ने नाना प्रकार की माया के ज्ञान में बढ़ी-चढ़ी “नाडीजंघा” नाम की निशाचरी से बहुत कुछ कहा और बताया – “कुबेर की जो “चित्रसेना” नाम की पत्नी है, वह एक दिन जब मानसरोवर के तट पर थी, तभी वहाँ से किसी ने उसे हर लिया. तुम इन्द्र आदि लोकपालों के भवनों में देखकर उसका पता लगाओ।”

तब वह निशाचरी मायामय स्त्री शरीर धारण कर इन्द्रादि देवताओं के भवनों में खोज करने के लिए शीघ्र ही स्वर्गलोक गई। उस निशाचरी ने ऐसा सुन्दर रूप बनाया था, जिसकी एक ही दृष्टि पड़ने से पत्थर भी मोहित हो सकता था। अवश्य ही उस समय वैसा मोहनी रूप चराचर जगत में कहीं नहीं था। इसी समय देवराज इन्द्र भी चित्रसेना के भेजने से उतावले हो कर नन्दन वन के दिव्य पुष्प लेने के लिए मन्दराचल से स्वर्ग लोक में आए थे। वहाँ अपने स्थान पर आई हुई उस अत्यंत रूपवती रमणी को जो मधुरगान गा रही थी, देख देवराज भी काम के वशीभूत हो गए। तब इन्द्र ने उसे जैसे भी हो , अपने अन्तःपुर में बुला लाने के लिए देव-वैद्य अश्वनी कुमारों को उसके पास भेजा।

दोनों अश्वनी कुमार उसके सामने जाकर खड़े हुए और कहने लगे-“ कृशांगी ! आओ, देवराज इन्द्र के निकट चलो।”

उन दोनों के द्वारा यों कहे जाने पर उस सुन्दरी ने मधुर वाणी में उत्तर दिया।

नाडीजंघा बोली- यदि देवराज इन्द्र स्वयं ही मेरे पास आयेंगे तो मैं उनकी बात मान सकती हूँ; अन्यथा बिलकुल नहीं।

तब अश्वनी कुमारों ने इन्द्र के पास जाकर उसका शुभ संदेश कहा।
तब इन्द्र स्वयं आकर बोले - कृशांगी ! आज्ञा दो! मैं इस समय तुम्हारा कौन सा कार्य करूँ ? मैं सदा के लिए तुम्हारा दास हो गया हूँ; तुम जो मांगोगी, वह सब दूँगा।

कृशांगी ने कहा - नाथ! यदि आप मेरी माँगी हुई वास्तु अवश्य दे देंगे तो निःसंदेह मैं आपकी वश में रहूँगी। आज आप अपनी समस्त भार्याओं को मुझे दिखाइए; देखूँ, आपकी कोई भी स्त्री मेरे रूप के सदृश्य है या नहीं?

उसके यों कहने पर इन्द्र ने पुनः कहा-“देवी! चलो, मैं तुम्हे अपनी समस्त भार्याओं को दिखाउँगा।”

यह कह कर इन्द्र ने उसी समय उसे अपना सारा अन्तःपुर दिखाया.

तब उस सुन्दरी ने पुनः कहा - “अभी मुझसे कुछ छुपाया गया है. केवल एक युवती को छोड़ कर और सब आपने दिखा दिया।”

इन्द्र ने कहा – “वह मन्दराचल पर है। देवता और असुर किसी को भी उसका पता नहीं है। मैं उसे भी तुम्हें दिखा दूँगा, परन्तु यह रहस्य किसी पर प्रकट न करना।”

यह कह कर देवराज इन्द्र उसके साथ आकाश मार्ग से मन्दराचल की ओर चले। जिस समय वे सूर्य के समान कान्तिमान विमान से चले जा रहे थे, उसी समय उन्हें आकाश में देवर्षि नारद का दर्शन हुआ।

नारद जी को देख कर वीरवर इन्द्र यद्यपि लज्जित हुए, तथापि उन्हें नमस्कार करके पूछा – “महामुने ! आप कहाँ जायेंगे ?”

तब मुनिवर नारद जी ने आशीर्वाद देते हुए स्वर्गाधिपति इन्द्र से कहा – “देवराज! आप सुखी हों, मैं इस समय मानसरोवर पर स्नान करने जा रहा हूँ।”

फिर उन्होंने नाडीजंघा को पहचान कर कहा - ”नाडीजंघे ! कहो तो महात्मा राक्षसों का कुशल तो है न ? तुम्हारे भाई विभीषण तो सुखपूर्वक हैं न?”

नारद जी की यह बात सुनते ही उसका मुख भय से काला पड़ गया।

देवराज इन्द्र भी बहुत आश्चर्य में पड़े और मन-ही-मन कहने लगे- “ इस दुष्ट ने मुझे छल लिया।”

नारद जी भी वहाँ से कैलाश पर्वत के निकट मानसरोवर में स्नान करने के लिए चले गए। तब इन्द्र भी उस राक्षसी का वध करने के लिए मन्दराचल पर जहाँ महात्मा तृणबिंदु का आश्रम था, आए और वहाँ थोड़ी देर विश्राम करके उस नाडीजंघा राक्षसी के केश पकड़ कर उसे मारना ही चाहते थे कि इतने में महात्मा तृणबिंदु अपने आश्रम से निकल कर वहाँ आ गए।

इधर इन्द्र के द्वारा पकड़ी जाने पर वह राक्षसी भी करुणा विलाप करने लगी- “हा! मैं मरी जा रही हूँ; इस समय कोई भी पुण्यात्मा पुरुष मुझ दीना को नहीं बचा रहा है।”

उसी समय महातपस्वी तृणबिन्दु मुनि वहाँ आ पहुँचे और इन्द्र के सामने खड़े हो बोले – “हमारे तपोवन में इस महिला को न मारो, छोड़ दो।”

तृणबिन्दु मुनि यों कह ही रहे थे कि महेन्द्र ने क्रुद्ध हो कर वज्र से उस राक्षसी को मार डाला।

तब मुनिवर इन्द्र की ओर बार-बार देखते हुए बहुत ही कुपित हुए और बोले – “रे दुष्ट! तुने मेरे तपोवन में इस युवती का वध किया है, इसलिए तू मेरे शाप से निश्चय ही स्त्री हो जाएगा।”
इन्द्र बोले – नाथ! मैं देवताओं का स्वामी इन्द्र हूँ और यह स्त्री महादुष्टा राक्षसी थी, इसलिए मैंने इसका वध किया है। आप इस समय शाप न दें।

मुनि बोले – अवश्य ही मेरे तपोवन में भी दुष्ट और साधु पुरुष भी रहते हैं, परन्तु वे मेरे तपोवन के प्रभाव से परस्पर किसी का वध नहीं करते। तू ने मेरे तपोवन की मर्यादा भंग की है, अतः तू शाप के योग्य है।

मुनि के यों कहने पर इन्द्र निःसंदेह स्त्री योनि को प्राप्त हो गए और पराक्रम तथा शक्ति खोकर स्वर्ग को लौट आए। उन्होंने सदा ही लज्जा और दुःख से खिन्न रहने के कारण देवताओं की सभा में बैठना छोड़ दिया। इधर देवता भी इन्द्र के स्त्री के रूप में परवर्तित हुआ देख कर बहुत दुःखी हुए। तत्पश्चात सभी देवता, दुखी शची और इन्द्र को साथ लेकर ब्रह्मा जी के धाम को गए।

जब तक ब्रहमा जी समाधि से विरत हुए, तब तक वे सभी वहीँ ठहरे रहे और इन्द्र के साथ ही सब देवता ब्रह्मा जी से बोले -“ब्रह्मन! सुरराज इन्द्र तृणबिन्दु मुनि के शाप से स्त्री योनि को प्राप्त हो गए हैं; वे मुनि बड़े क्रोधी हैं, किसी प्रकार अनुग्रह नहीं करते।”

ब्रह्मा जी बोले – इसमें उस महात्मा तृणबिन्दु मुनि का कोई अपराध नहीं है।  इन्द्र स्त्रीवध  रूपी अपने ही कर्म से स्त्रीभाव को प्राप्त हुए हैं। देवताओं ! देवराज इन्द्र ने भी मदमत्त होकर बड़ा ही अन्याय किया है, जो कुबेर की पत्नी चित्रसेना का गुप्त अपहरण कर लिया। यही नहीं, इन्होंने तृणबिन्दु  के तपोवन में एक युवती का वध किया है, अतः अपने इस निन्द्य कर्म के परिणाम स्वरुप ही ये इन्द्र स्त्रीभाव को प्राप्त हुए हैं।

देवगण बोले – नाथ! इन्होंने दुर्बुद्धि से प्रेरित होकर शंकरप्रिय कुबेर का अपमान किया है, उसके लिए हम सब लोग शची के साथ कुबेर को प्रसन्न करने का यत्न करेंगे। विभो! कुबेर की पत्नी मन्दराचल पर गुप्त रूप से रहती है, हम सभी लोग सम्मति करके उसे कुबेर को अर्पित कर देंगे। देवराज इन्द्र भी प्रति त्रयोदशी एवं चतुर्दशी को नन्दन वन में शची को साथ लेकर यक्ष और राक्षसों की पूजा करेंगे।
तत्पश्चात शची अपने प्रियतम को कष्ट में डालने वाली चित्रसेना को गुप्तरूप से ले जाकर यक्षराज कुबेर के भवन में छोड़ आयीं।

इसी समय कुबेर का दूत असमय में ही लंका में पहुँचा और कुबेर से चित्रसेना के लौट आने का समाचार सुनाया – “हे धनाधिप ! आपकी प्रिय पत्नी चित्रसेना शची के साथ घर लौट आई है। वह शची जैसी अनुपम सखी को पा कर कृतार्थ हो चुकी है।”

तब कुबेर भी कृतकृत्य होकर अपने घर को लौट आए.इसके बाद देवगण पुनः ब्रह्मलोक में जा कर ब्रह्मा जी से प्रार्थना करने लगे।

देवगण बोले- ब्रह्मण !आपके कृपा से यह सारा काम तो हो गया, इसमें संदेह नहीं। परन्तु अब जैसे पति के बिना नारी, सेनापति के बिना सेना और कृष्ण के बिना व्रज की शोभा नहीं होती, उसी प्रकार इन्द्र के बिना अमरावती सुशोभित नहीं होती। प्रभो! अब इन्द्र के लिए जप, क्रिया, तप, दान, ज्ञान और तीर्थ-सेवन आदि उपाय बताइए , जिससे स्त्रीभाव से इनका उद्धार हो सके। 
ब्रह्मा जी बोले – उस मुनि के शाप को अन्यथा करने में न तो मैं समर्थ हूँ और न भगवान् शंकर ही। इसके लिए एक मात्र भगवान् विष्णु के पूजन को छोड़ कर दूसरा कोई उपाय सफल नहीं दिख पड़ता। बस, इन्द्र अष्टाक्षर मन्त्र के द्वारा भगवान् विष्णु का विधिपूर्वक पूजन करें और उस मन्त्र का जाप करते रहें ; इससे वे स्त्रीभाव से मुक्त हो सकते हैं। इन्द्र! स्नान करके, श्रद्धायुक्त हो, आत्मशुद्धि के लिए एकाग्रचित से “ॐ नमो नारायणाय” मन्त्र का जाप करो। देवेन्द्र ! इस मन्त्र का दो लाख जप हो जाने पर तुम स्त्री-योनि से मुक्त हो सकते हो।

यह सुनकर इन्द्र ने ब्रह्मा जी की आज्ञा का यथावत पालन किया, तब वे भगवान् विष्णु की कृपा से स्त्रीभाव से छुटकारा पा गए। 

( सद्धर्म [सं-पु.] - उत्तम धर्म; उत्तम कर्म मानवता के लिहाज़ से जो करणीय हो ऐसा कर्तव्य।। )


गीता प्रेस के "श्रीनरसिंह पुराण" से साभार।


     







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