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समरथ के नहीं दोष गोसाई - भाग -1

समरथ के नहीं दोष गोसाई 


“समरथ के नहीं दोष गोसाई” गोस्वामी तुलसीदास जी ने किस मंशा से यह दोहा लिखा और इसका अर्थ क्या है इस विवाद में मैं नहीं पड़ने जा रहा और ना ही ये मेरा विषय-वस्तु है। परन्तु हाँ! मेरा पूरा यकीन है कि समर्थ लोगों में कोई दोष नहीं होता है, होगा भी कैसे? हम जैसे लोग उनके कीर्ति बखान करने के लिए जो बैठे हैं। इनका दोष हमें तब दिखाई या सुनाई पड़ता है जब इनके समकक्षी या इनसे बड़ा समर्थवान अपने हित के लिए इन पर दोषारोपण लगाता है और इनके बड़े-से-बड़े अपराध की सजा बहुत ही छोटी होती है क्योंकि तंत्र के हमाम में ये सभी नंगे होते हैं। 

आज के लोकतंत्र में तो हमसभी अपने-आप को किसी न किसी स्तर के समर्थवान समझते हैं, परन्तु जिन लोगों से तंत्र प्रभावित हो वैसे ही समर्थ लोगों में कोई दोष नहीं होता है।  भारत में तंत्र को प्रभावित करने वाले समर्थवानों की संख्या अनगिनत है और इनके द्वारा किए गए अपराधों की फ़ेहरिस्त भी बड़ी लम्बी है और इन अपराधों का हश्र क्या होता है ये आप सब सुधि पाठकजन को मुझे बताने की जरूरत नहीं है। 

मेरा मानना है कि आमलोगों की इज्जत तब ही तक सलामत है जब तक किसी समर्थवान की बुरी नज़र उनकी इज्जत पर ना पड़ी हो। 

इसी तथ्य को उजागर करती श्रीनरसिंह पुराण की एक कथा आपके साथ साँझा करने जा रहा हूँ।  
भाग -1

सब प्रकार के भोगों को भोगने के बाद देवराज इन्द्र को मन में वैराग्य का भाव उत्पन्न हुआ। वे सोचने लगे – “यह निश्चित है कि वैरागी ह्रदय वाले मानव की दृष्टि में स्वर्ग के  राज्य का भी कोई महत्व नहीं होता और सत्ता का सुख विषयों के भोग में निहित है तथा भोग के अंत में कुछ भी नहीं रह जाता। यही सोच कर ज्ञानी जन सदा ही मोक्ष की प्राप्ति  के विषय में ही विचार करते हैं। सामान्य जन सदा भोग के लिए ही तप करते है और भोग के अंत में तप भी नष्ट हो जाता है। परन्तु जो लोग किसी कारण से विषय-भोग से विमुख हो मोक्षाधिकारी हो गए हैं, उन मोक्षभागी पुरुषों को न तप की आवश्यकता होती है न योग की। ”

ऐसा सोच कर ह्रदय में एक मात्र मोक्ष की कामना लिए देवराज इन्द्र क्षुद्रघंटिकाओं की ध्वनि से युक्त विमान पर आरूढ़ हो भगवान् शंकर की आराधना के लिए कैलाश पर्वत पर चले आए। एक दिन देवराज इन्द्र बिना किसी उद्देश्य के कैलाश पर्वत पर भ्रमण करते हुए मानसरोवर पहुँचे।  मानसरोवर के तट पर उन्होंने यक्षराज कुबेर की पत्नी  चित्रसेना को पार्वती जी का अराधना करते हुए देखा, उसकी काया  अनंग (कामदेव) के रथ की फहराती ध्वजा सी जान पड़ती थी . उसके अंग प्रसिद्ध “जम्बूनद” नामक सुवर्ण जैसी प्रभा बिखेर रही थी . उसके कटीले नयन मनोहर थीं, जो कानों के पास तक पहुँच गई थी. महीन वस्त्रों के भीतर से उसके मनोहर अंग इस प्रकार झलक रहे थे, मानो निहारिका के भीतर से चन्द्रलेखा दिख रही हो। इन्द्र ने अपने हज़ार नेत्रों से उस देवी को मुग्ध होकर निहारते रहे। वे उस स्त्री को देख इतने काम आसक्त हो गए कि दूर अपने आश्रम जाने का ख्याल ही नहीं रहा और देवराज इन्द्र विषयाभिलाषी होकर वहीँ खड़े हो गए। वे सोचने लगे – “पहले सर्वांग-सौन्दर्य के साथ उत्तम कुल में जन्म पा जाना ही बड़ी बात है, और उस पर भी धन तो सर्वथा ही दुर्लभ है। इन सब के बाद धनाधिप होना तो पुण्य से ही संभव है. स्वर्गलोक पर मेरा आधिपत्य है, फिर भी मेरे भाग्य में भोग भोगना नहीं है, इसलिए मेरे चित्त में मुक्ति की इच्छा उत्पन्न हुई। मोक्ष-सुख तो इस राज्य-भोग द्वारा प्राप्त किया जा सकता है, परन्तु क्या मोक्ष भी राज्य प्राप्ति का कारण हो सकता है? भला कोई अपने द्वार पर पके अन्न को छोड़ कर कोई जंगल में खेती करने क्यों जाएगा? जो सांसारिक दुःख से मारे-मारे फिरते हैं और कुछ भी करने की शक्ति नहीं रखते, वे अकर्मण्य, भाग्यहीन एवं मूढ़जन मोक्षमार्ग की इच्छा करते हैं। ”

बार-बार ऐसा विचार करके इन्द्र धनाधिप की पत्नी चित्रसेन के रूप पर मोहित हो गए। काम-वेदना से व्याकुल वे मानसिक धैर्य खो कर कामदेव का स्मरण करने लगे। इन्द्र के स्मरण करने पर अत्यंत कामनाओं से व्याप्त चित्तवृतिवाला कामदेव बहुत धीरे-धीरे डरता हुआ वहाँ आया, क्योंकि वहीँ पूर्वकाल में शंकर जी ने उसके शरीर को जला कर भस्म कर दिया था. जब किसी स्थान पर प्राण संकट में हो तो धीरतापूर्वक और निर्भय हो कर वहाँ कौन जा सकता है?

कामदेव ने आकर कहा – कौन आपका शत्रु बना हुआ है? शीघ्र आदेश दे विलम्ब ना करे, मैं अभी उसे आपत्ति में डालता हूँ।”

उस समय कामदेव के उस मनोभिराम वचन को सुन कर मन-ही-मन उस पर विचार कर के इन्द्र बहुत संतुष्ट हुए. अपने मनोरथ को सहसा सिद्ध होते जान वीरवर इन्द्र ने हँस कर कहा- “कामदेव! अनंग बन जाने पर भी तुम ने जब शंकर जी को भी आधे शरीर का बना दिया, तब संसार में दूसरा कौन तुम्हारे घात को सह सकता है? अनंग! जो गिरिजा पूजन में एकाग्रचित होने पर भी मेरे मन को आकर्षित कर रही है, उस विशाल नयनों वाली सुंदरी को तुम तुम एकमात्र मेरे अंग-संग की सरस भावना से युक्त कर दो।”
सुरराज इन्द्र के यों कहने पर उत्तम बुद्धि वाले कामदेव ने भी अपने पुष्पमय धनुष पर बाण रख कर मोहन मन्त्र का स्मरण किया। तब कामदेव द्वारा पुष्प-बाण से मोहित की हुई चन्द्रसेना काम के मद से विह्वल हो गई और पूजा छोड़ इन्द्र की ओर देख कर मुस्काने लगी. भला, कामदेव के धनुष की टंकार को कौन सह सकता है। इन्द्र उसको अपनी ओर आतुरता से देखने के कारण बोले – “चंचल नेत्रों वाली बाले! तुम कौन हो, जो पुरुषों के मन को इस प्रकार मोहे लेती हो? बताओ तो, तुम किस पुण्यात्मा की पत्नी हो?” इन्द्र के इस प्रकार पूछने पर उसके अंग काम-मद से विह्वल हो उठे। शरीर में रोमांच, स्वेद और कम्प होने लगे। वह कामबाण से व्याकुल हो गद्गद कंठ से धीरे-धीरे इस प्रकार बोली – “नाथ ! मैं धनाधिप कुबेर की पत्नी एक यक्ष-कन्या हूँ। पार्वती जी के चरणों की पूजा करने के लिए यहाँ आई थी। आप अपना कार्य बताइये; आप कौन हैं? जो साक्षात् कामदेव के समान रूप धारण किये यहाँ खड़े हैं?”

इन्द्र बोले –प्रिये! मैं स्वर्ग का राजा इन्द्र हूँ। तुम मेरे पास आओ और मुझे अपनाओ तथा चिरकाल तक मेरे अंग-संग रहने का शीघ्र ही अपनी सहमति दो, नहीं तो तुम्हारे बिना मेरा यह जीवन और स्वर्ग का विशाल राज्य भी व्यर्थ जाएगा। 

इन्द्र ने मधुर वाणी में जब इस प्रकार कहा, तब उसका सुन्दर शरीर कामवेदना से पीड़ित होने लगा और वह फहराती हुई पताकाओं से सुशोभित विमान पर आरूढ़ हो देवराज इन्द्र के कंठ से लग गई। तब स्वर्ग के राजा इन्द्र शीघ्र ही उसके साथ मन्दराचल की उन कंदराओं में चले गए, जहाँ का मार्ग देवता और असुर दोनों के लिए अभी तक अज्ञात था और जो रत्नों की प्रभा से प्रकाशित थी। आश्चर्य है कि देवताओं के राज्य के प्रति आदर न रखते हुए भी उदार पराकर्मी इन्द्र उस सुन्दर यक्ष-बाला के साथ वहाँ रमण करने लगे तथा काम के वशीभूत हो परम चतुर इन्द्र ने अपने हाथों से चित्रसेना के लिए शीघ्रतापूर्वक छोटी सी पुष्प शय्या तैयार की। कामोपभोग में चतुर देवराज इन्द्र चित्रसेना के समागम के स्वप्नमात्र से कृतार्थ का अनुभव करने लगे। स्नेहरस से अत्यंत मधुर प्रतीत होने वाला वह परस्त्री के आलिंगन और समागम का सुख उन्हें मोक्ष से भी बढ़ कर लगा। 


(कामदेव को अनंग भी कहा जाता है।
शची, इन्द्र की पत्नी हैं। )

क्रमशः  (शेष अगले भाग में )

गीता प्रेस के "श्रीनरसिंह पुराण" से साभार।





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