हर किसी को
दिखाई देती है
अपने सामने
वाले इन्सान
में एक
इशारों इशारों में
चल देने
वाली एक
आधुनिक कार
जिसके गियर
स्टेरिंग क्लच
और ब्रेक उसे
साफ साफ
नजर आते हैं
वो बात अलग है
बारीक इन्सान
जानते हैं
बारीकियाँ
कि किसके
हाथ से
बहुत दूर से
बिना चश्मा
लगाये भी
क्या क्या
चल पाता है
और किस
आदमी से
कौन सा
आदमी रिमोट
से घर बैठे
कैसे चलाया
जाता है
समाज की
मुख्य धाराओं
में बह रहे
इन्सानो को
जरा सा भी
पसन्द नहीं
आते हैं
अपनी मर्जी से
धाराओं के
किनारे खड़े
हुऐ दो चार
प्रतिशत इन्सान
जो मौज में
मुस्कुराते हैं
जिस समाज
की धाराओं के
पोस्टर गंगा के
दिखाई देते हैं
भगीरथ के
जमाने के
होते हैं मगर
आज और
अभी के
बताये जाते हैं
और तब से
अब तक के
सफर में जब
गंगा घूम घाम
कर जा भी
चुकी होती है
बस रह गई
होती हैं धारायें
इन्सानी सीवर की
जिसकी खुश्बू
को भी सूँघने से
लोग कतराते हैं
सीवर नीचे से
निकलने वाले
मल का होता
तब भी
अच्छा होता
उसमें बहने से
कुछ तो मिलता
इन्सान को
ना सही
उसके आस पास
की मिट्टी को
ही सही
पर सीवर
और गंगा
नंगे इन्सानों के
ऊपर के हिस्से
में बह रही
गंदगी का होता है
नजर वाले
देखने में
सोचने में ही
धोखा खाते हैं
हर कोई डुबकी
लगा रहा होता है
मजबूरी होती है
लगानी पड़ती है
नहीं लगाने वाले
किनारे फेंक
दिये जाते हैं
करम में
भागीदारी कर
नहीं तो मर
सारे करमकोड़ियों
को जरा सा भी
पसन्द नहीं आते हैं
वो इन्सान जो
धाराओं से दूर
रहते हैं किनारे
खड़े हुए होते हैं
इसीलिये उनको
सुझाव दिया जाता है
समाज में रहना होता है
तो किसी ना किसी
धारा में बहना
बहुत जरूरी होता है
‘उलूक’
तुझे क्या परेशानी है
तू तो जन्मजात नंगा है
जहाँ सारे
कपड़े पहने हुए
धारा में तैरते
नजर आ रहे होते हैं
हिम्मत करके
थोड़ा सा
तेरे सीवर में कूदने
में क्या जाता है
क्यों नहीं कुछ
थोड़ा सा
सामाजिक
तू भी क्यों
नहीं हो जाता है ?
चित्र साभार: www.canstockphoto.com
दिखाई देती है
अपने सामने
वाले इन्सान
में एक
इशारों इशारों में
चल देने
वाली एक
आधुनिक कार
जिसके गियर
स्टेरिंग क्लच
और ब्रेक उसे
साफ साफ
नजर आते हैं
वो बात अलग है
बारीक इन्सान
जानते हैं
बारीकियाँ
कि किसके
हाथ से
बहुत दूर से
बिना चश्मा
लगाये भी
क्या क्या
चल पाता है
और किस
आदमी से
कौन सा
आदमी रिमोट
से घर बैठे
कैसे चलाया
जाता है
समाज की
मुख्य धाराओं
में बह रहे
इन्सानो को
जरा सा भी
पसन्द नहीं
आते हैं
अपनी मर्जी से
धाराओं के
किनारे खड़े
हुऐ दो चार
प्रतिशत इन्सान
जो मौज में
मुस्कुराते हैं
जिस समाज
की धाराओं के
पोस्टर गंगा के
दिखाई देते हैं
भगीरथ के
जमाने के
होते हैं मगर
आज और
अभी के
बताये जाते हैं
और तब से
अब तक के
सफर में जब
गंगा घूम घाम
कर जा भी
चुकी होती है
बस रह गई
होती हैं धारायें
इन्सानी सीवर की
जिसकी खुश्बू
को भी सूँघने से
लोग कतराते हैं
सीवर नीचे से
निकलने वाले
मल का होता
तब भी
अच्छा होता
उसमें बहने से
कुछ तो मिलता
इन्सान को
ना सही
उसके आस पास
की मिट्टी को
ही सही
पर सीवर
और गंगा
नंगे इन्सानों के
ऊपर के हिस्से
में बह रही
गंदगी का होता है
नजर वाले
देखने में
सोचने में ही
धोखा खाते हैं
हर कोई डुबकी
लगा रहा होता है
मजबूरी होती है
लगानी पड़ती है
नहीं लगाने वाले
किनारे फेंक
दिये जाते हैं
करम में
भागीदारी कर
नहीं तो मर
सारे करमकोड़ियों
को जरा सा भी
पसन्द नहीं आते हैं
वो इन्सान जो
धाराओं से दूर
रहते हैं किनारे
खड़े हुए होते हैं
इसीलिये उनको
सुझाव दिया जाता है
समाज में रहना होता है
तो किसी ना किसी
धारा में बहना
बहुत जरूरी होता है
‘उलूक’
तुझे क्या परेशानी है
तू तो जन्मजात नंगा है
जहाँ सारे
कपड़े पहने हुए
धारा में तैरते
नजर आ रहे होते हैं
हिम्मत करके
थोड़ा सा
तेरे सीवर में कूदने
में क्या जाता है
क्यों नहीं कुछ
थोड़ा सा
सामाजिक
तू भी क्यों
नहीं हो जाता है ?
चित्र साभार: www.canstockphoto.com